भारत की शिक्षा व्यवस्था हमेशा से असमानताओं से घिरी रही है। महानगरों में बच्चे 10 साल की उम्र में कोडिंग सीख रहे हैं, अंतरराष्ट्रीय वेबिनार में हिस्सा ले रहे हैं और ऐसे करियर की तैयारी कर रहे हैं, जो 10 साल पहले मौजूद भी नहीं थे। वहीं, ग्रामीण भारत के कई इलाकों में आज भी स्कूलों में न प्रशिक्षित शिक्षक हैं, न बिजली, और कई जगह तो ब्लैकबोर्ड तक नहीं है। यह अंतर केवल तकनीक या सुविधाओं का नहीं, बल्कि अवसर का है।
आँकड़े बताते हैं कड़वी सच्चाई
यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (UDISE) के अनुसार, देश के स्कूलों में 10 लाख से अधिक शिक्षकों के पद खाली हैं। कई सरकारी सेकेंडरी स्कूलों में एक शिक्षक को 47 से ज्यादा बच्चों की कक्षा संभालनी पड़ती है। ऊपर से भाषा की बाधा, कमजोर इंटरनेट, बिजली की कमी और डिजिटल डिवाइस की अनुपलब्धता, यह साफ कर देती है कि डिजिटल लर्निंग लाखों बच्चों के लिए अब भी दूर की बात है।
महामारी ने बढ़ा दी खाई
कोविड-19 ने इस खाई को और गहरा कर दिया। शहरों में बच्चे तुरंत ऑनलाइन क्लास में शिफ्ट हो गए, लेकिन गाँवों में हजारों बच्चों ने पढ़ाई ही छोड़ दी। इसके पीछे इंटरनेट की अनुपलब्धता या महंगाई एक बड़ी वजह रही। फिर भी, इस कठिन समय में बदलाव की एक चुपचाप लहर शुरू हुई।
झांसी के पास एक गाँव की कक्षा 10 की छात्रा ने सेकंड-हैंड मोबाइल और यूट्यूब पर हिंदी में मुफ्त लेसन से बोर्ड की तैयारी शुरू की। तमिलनाडु में एक किसान का बेटा, खेत में पिता की मदद के बाद, दोस्त से उधार लिए ईयरफोन लगाकर NEET की तैयारी करता रहा। ये अब अपवाद नहीं रहे। सीकर से समस्तीपुर तक, बच्चे मोबाइल-फर्स्ट एडटेक प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर रहे हैं—कुछ में स्थानीय भाषा का कंटेंट है, तो कुछ में AI-आधारित कोर्स हैं जो बच्चे की सीखने की गति के अनुसार बदलते हैं।
एडटेक ने बदली तस्वीर
आज सफल एडटेक प्लेटफॉर्म वही हैं जो अपने दर्शकों को समझते हैं। वे भोजपुरी, मराठी, ओडिया जैसी भाषाओं में कंटेंट बना रहे हैं। कठिन विषयों को आसान उदाहरणों से समझा रहे हैं और बड़े शहरों वाले मॉडल की जगह, बच्चों के माहौल से जुड़ी कहानियाँ इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका नतीजा यह है कि टियर-3 शहरों के छात्र बिना घर छोड़े ही JEE और UPSC जैसी परीक्षाओं में सफलता पा रहे हैं।
सरकार और साझेदारी की भूमिका
भारतनेट और डिजिटल इंडिया जैसी सरकारी योजनाएँ धीरे-धीरे इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत कर रही हैं। पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत बिजलीविहीन स्कूलों को सोलर-चालित टैबलेट मिल रहे हैं। पीएम ई-विद्या और दीक्षा जैसी योजनाएँ मुफ्त में उच्च गुणवत्ता का कंटेंट उपलब्ध करा रही हैं। सस्ते स्मार्टफोन, बढ़ता 4G नेटवर्क और एनजीओ की स्थानीय पहल एडटेक को जमीनी स्तर पर मजबूत आधार दे रही हैं।
शिक्षक—परिवर्तन की रीढ़
गाँवों के शिक्षक बदलाव के विरोधी नहीं, बल्कि संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। उन्हें सही उपकरण और प्रशिक्षण दिया जाए, तो वे बच्चों को बेहतर भविष्य दे सकते हैं। ऐसे प्लेटफॉर्म जो शिक्षक प्रशिक्षण, ब्लेंडेड क्लासरूम सपोर्ट और आसान डिजिटल टूल्स मुहैया करा रहे हैं, वे शिक्षकों को नई शिक्षण विधियों से लैस कर रहे हैं।
भविष्य—सिर्फ सीखना नहीं, बनाना भी
एडटेक की सबसे बड़ी ताकत यह है कि यह बच्चों को सिर्फ जानकारी नहीं देता, बल्कि उन्हें निर्माता बनने की क्षमता देता है। ग्रामीण इलाकों में बच्चे अब ऐप बना रहे हैं, कोडिंग सीख रहे हैं और रोबोटिक्स में प्रयोग कर रहे हैं। कई राज्यों के सरकारी स्कूलों में AI लैब और क्रिएटिव स्पेस बनाए जा रहे हैं, ताकि रुचि को कौशल में बदला जा सके। मकसद क्लासरूम को स्क्रीन से बदलना नहीं, बल्कि मौजूदा व्यवस्था को मजबूत करना है। एडटेक कोई शॉर्टकट नहीं, बल्कि एक सहारा है—एक पुल, जो शहर-गाँव की शिक्षा की खाई पाट सकता है। अगर समाधान जमीनी जरूरतों के हिसाब से, सभी को शामिल करके और उन्हीं की आवाज़ से बनाए जाएँ जिनके लिए वे हैं, तो भारत को शिक्षा के क्षेत्र में सचमुच सशक्त बनाया जा सकता है।
लेखक: नीरज कंसल, सीईओ एवं फाउंडर, क्रैक एकेडमी